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सिनेमा

सघन, सार्थक और संवेदनशील : द गाजी एटैक

सी. भास्कर राव


इसी वर्ष रिलीज हुई फिल्म "द गाजी एटैक" एक महत्वपूर्ण तथा देखने योग्य फिल्म है। एक हद तक याद रखने लायक भी। हिंदी में युद्ध की पृष्ठभूमि पर सराहने योग्य फिल्मों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। इधर तो इस तरह की फिल्में नहीं के बराबर ही बन रही हैं। पहले भी जो फिल्में इस पृष्ठभूमि पर बनी हैं, वे ज्यादातर भावनात्मक हैं और भले ही दर्शकों को उन फिल्मों ने इस आधार पर प्रभावित किया हो, पर पृष्ठभूमि के साथ न्याय करने वाली फिल्मों की संख्या बहुत कम है। आज के समय इस विषय पर फिल्म निर्माण का सामान्यतः प्रचलन भी नहीं है। ऐसी स्थिति में यह फिल्म एक विचारणीय फिल्म के रूप में हमारे सामने आती है। यह सही अर्थ में एक युद्ध-फिल्म है। अब तक विदेशों में जिस तरह की युद्ध-फिल्में बनती रही हैं, यह उसी वर्ग की फिल्म है। भले ही दुनिया की महान युद्ध-फिल्मों की कोटि में इसे न रख पाएँ, लेकिन हिंदी की श्रेष्ठ युद्ध-फिल्म के रूप में इसे स्वीकार करने में किसी संदेह या हिचक की जरूरत नहीं है। आज के फिल्मी दौर से हटकर इस वर्ष एक युद्ध-फिल्म का बनना और उस पर उसका एक सार्थक, संवेदनशील तथा सघन फिल्म होना, किंचित आश्चर्य का विषय बनता है। हालाँकि यह फिल्म सिर्फ हिंदी फिल्म है, यह नहीं माना जा सकता है, लेकिन इसे तेलुगु तथा हिंदी में साथ-साथ बनाना, एक मार्के की बात अवश्य है। बाद में इसे तमिल में डब किया गया है। इस तरह इस फिल्म का विस्तार तीन भाषाओं तक हो जाता है। हिंदी में इसका लोकप्रिय होना एक संदेह का विषय था, लेकिन अब तक जो सूचनाएँ आई हैं, वे उत्साहवर्धक अवश्य हैं। हिंदी के आम दर्शकों को यह फिल्म रास आएगी, इसमें संदेह है, क्योंकि यह फिल्म आम हिंदी के दर्शकों के मिजाज के मेल में नहीं है, लेकिन हिंदी के समझदार, परिपक्व और प्रबुद्ध वर्ग को यह फिल्म पसंद आएगी, यह अवश्य माना जा सकता है। मैंने भी किसी समझदार फिल्म-समीक्षक की राय जानकर ही यह फिल्म देखी और दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह हिंदी की एक बेहतरीन और प्रभावशाली फिल्म अवश्य है। समुद्री-युद्ध-फिल्म के रूप में यह एक सराहनीय और स्मरणीय फिल्म है। हिंदी सिनेमा के दर्शकों को यह फिल्म देखनी तो चाहिए ही साथ ही दूसरों को इसे देखने के लिए प्रेरित भी करना चाहिए ताकि हिंदी सेनेमा और समृद्ध बने। उसके संवेदनशील दर्शक वर्ग का विस्तार हो सके। हिंदी सिनेमा के इस नए दौर में जिस तरह कई अच्छी और समझदारीपूर्ण फिल्में बन रही हैं, यह फिल्म भी उसी श्रेणी में आती है, बल्कि उनसे कुछ कदम आगे ही दिखती है।

इस फिल्म के निर्देश्क हैं, संकल्प रेड्डी। वाकई लगता है कि उन्होंने एक संकल्प लेकर ही यह फिल्म बनाई है कि अपने विषय से कहीं भटकेंगे या बिखरेंगे नहीं। आरंभ से अंत तक उनका यह संकल्प चरितार्थ होता है। इतने लगन और मनोयोग से फिल्म बनाना भी अपने आप में एक अनुकरणीय दृष्टांत है। समुद्र के भीतर के युद्ध को जिस रूप में फिल्मांकित किया गया है, वह देखने और सीखने लायक है। इसके कई निर्माता हैं, सभी दक्षिण के ही हैं। इसके संवाद लेखक हैं, आजाद आलम, जिन्होंने इसके हिंदी संवाद लिखे हैं और गंगराजु गुनम ने इसके तेलुगु तथा तमिल संवाद लिखे हैं। इसकी पटकथा लिखी है, संकल्प रेड्डी, गंगराजु तथा निरंजन रेड्डी ने। इस फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में, राना दग्गुबाती, तापसी पानु, के.के. मेनन, राहुल सिंह, सत्यदेव कंचरना तथा अतुल कुलकर्णी हैं। हिंदी सिनेमा के जिन कलाकारों से हम पहले से परिचित हैं, उनका अभिनय तो प्रशंसनीय है ही साथ ही शायद दक्षिण के जिन कलाकरों ने अभिनय किया है, वे भी सराहनीय हैं। इसमें निर्देशकीय कौशल के साथ कलाकरों का एक बेहतरीन टीम वर्क भी दिखता है, जो फिल्म को प्रभावशाली बना देता है।

यह एक एक्शन तथा एक्टिंग प्रधान फिल्म है। एक्शन का अर्थ मार-धाड़ नहीं, वरन स्थिति-परिस्थिति से जुड़ा हुआ एक्शन। एक विशेष बात इसमें यह मिलती है कि आरंभ में एक नेरेशन है, हिंदी में यह अमिताभ बच्चन की आवाज में है और तेलुगु में चिरंजीवी के स्वर में तथा तमिल में सूर्या के स्वर में। तीनों भाषाओं में निर्मित इस फिल्म के छायाकार हैं, माधी तथा इसका संपादन ए. स्रीकर प्रसाद का है। संगीत 'के' का है। इस फिल्म की अवधि दो घंटे तीन मिनट है। यह फिल्म आम मनोरंजनपूर्ण फिल्म नहीं है, इसलिए यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल दिखाएगी। रिपोर्ट के अनुसार इस फिल्म ने औसत अच्छा और आश्वस्तकारक बिजनेस किया है।

इस तरह की हिंदी फिल्म की सफलता का अर्थ है, भविष्य में एक नई संभावना का द्वार खुलना। हिंदी में सच घटनाओं के आधार पर भी कई फिल्में बनी हैं, लेकिन उनमें भी कहीं-कहीं बॉलीवुड तड़का लगाया ही गया है, इसलिए उनमें से कुछ सफल हुईं तो कुछ असफल। यह भी एक घटना प्रधान फिल्म ही है, जो १९७१ में बांग्ला देश में लड़ी गई भारत-पाक जलयुद्ध की घटना पर आधारित है। घटना के प्रमाण तो मिलते हैं, लेकिन उसके परिणाम को लेकर मतभेद हैं। भारत यह मानता है कि भारतीय नौसेना के 'ऐ.एन.एस. विक्रांत' पनडुब्बी ने पाकिस्तानी पनडुब्बी 'पी.एन.एस. गाजी' को नष्ट कर दिया था और पाकिस्तान यह दावा करता है कि उसके 'गाजी' ने भारतीय 'विक्रांत' को नष्ट करने के लिए जो समुद्री माईन बिछाए थे, उसकी वजह से उनकी पनडुब्बी नष्ट हुई।

सचाई चाहे जो भी हो, लेकिन एक सचाई तो यह है ही कि इसके फिल्मकार को उक्त घटना पर एक फिल्म निर्माण का उपयुक्त अवसर मिला, जिसका बहुत सफल और सार्थक उपयोग फिल्मकार ने किया। कम से कम भारतीय सिनेमा में पनडुब्बियों की समुद्री लड़ाई से दर्शकों का मौलिक साक्षात्कार अवश्य होता है, जो प्रभावित भी करता है। कहीं भी इस युद्ध को ग्लैमराइज या रोमांटिसाइज करने की कोशिश नहीं की गई है। युद्ध को ठीक युद्ध की तरह ही पेश किया गया। फिल्म क्षण भर के लिए भी अपने लक्ष्य से भटकती नहीं है, फिर भी वह दर्शकों को आद्योपांत बाँधे रखने में सक्षम है। दोनों ओर की तनावपूर्ण तथा आशंकाग्रस्त स्थितियों ने फिल्म को अपेक्षित गति प्रदान की है। हॉलीवुड की महान युद्ध आधारित फिल्मों की श्रेणी में हम इसे न भी रखें, पर वहाँ की औसत सफल युद्ध फिल्मों की पंक्ति में अवश्य यह शामिल की जा सकती है। भारतीय और विशेषकर हिंदी फिल्म जगत के लिए तो इसे एक लैंडमार्क सामुद्रिक युद्ध-फिल्म के रूप में अवश्य स्वीकार किया जा सकता है।

संक्षेप में इस फिल्म की कहानी यह है कि जब पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश की जमीन पर पश्चिमी पाकिस्तान ने आक्रमण किया, उस समय पूर्वी पाकिस्तान के पक्ष में भारत तथा पाकिस्तान के बीच केवल जमीन और हवा में ही युद्ध नहीं लड़ा गया, बल्कि युद्ध का एक मोर्चा समुद्र में भी खुल गया था। वह था दोनों ओर की पनडुब्बियों के बीच समुद्र के भीतर का युद्ध। यह वास्तव में बहुत हाईलाइट भी नहीं हुआ था, जिसकी एक वजह इसके परिणाम को लेकर मतभेद भी हो सकता है। यह युद्ध भी १९७१ के समय का ही है। एक दूसरे से मुठभेड़ के लिए भारत से कैप्टन रणविजय सिंह (के.के. मेनन) के नेतृत्व में 'आई.एन.एस. विक्रांत' पूर्वी पाकिस्तान की ओर रवाना हुई तथा पाक की ओर से कमांडर रजाक मोहम्मद (राहुल सिंह) के नेतृत्व में 'पी.एन.एस. गाजी' रवाना हुई। दोनों पर अन्य कई अफसर और कर्मचारी भी थे।

इसमें दृश्य भारत के संघर्ष के ही अधिक मिलते हैं और उनकी तुलना में पाक के दृश्य कम। हालाँकि दोनों एक दूसरे को नष्ट करने के लिए अपनी-अपनी रणनीतियाँ तैयार करते हैं। पाक की ओर से मिसाईल अधिक संख्या में दागे जाते हैं और जल-माईन भी बिछाया जाते हैं, लेकिन अपनी सूझ-बूझ से भारतीय हर बार उन्हें मात देते हैं। युद्ध के दौरान कई बार कई तरह के उतार-चढ़ाव आते हैं और स्थितियाँ बहुत जटिल तथा गंभीर हो जाती हैं, लेकिन दोनों पक्ष अपने-अपने तरीके से अपने को सुरक्षित करने में कामयाब होते हैं। भारत में इस आक्रमण की पूरी तैयारी आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम स्थित भारतीय नेवी के मुख्यालय से होती है। कैप्टन रणविजय सिंह के साथ उनका सहयोग करने के लिए कुछ अन्य सहायक अफसर भी होते हैं, जिनमें मुख्य हैं, लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन वर्मा (राना दग्गुबाती) तथा एक्जिक्यूटिव अफसर देवराज (अतुल कुलकर्णी) यों तो पनडुब्बी के विभिन्न विभागों में अन्य कई लोग अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ सँभालते हैं, लेकिन तीन प्रमुख चरित्रों के बीच ही बाहर और अंदर का युद्ध जारी रहता है। रणविजय सिंह और अर्जुन वर्मा के बीच कई बार आक्रमण संबंधी निर्णयों को लेकर तीव्र मतभेद उभरते हैं। दोनों में से कोई भी दूसरे के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं होता है। एक तरह से उनके बीच अपने-अपने अनुभवों और अधिकारों को लेकर अहं की अंदरूनी लड़ाई चलती रहती है, जिसका शिकार पनडुब्बी के भीतर काम करने वाले हर स्तर के अन्य अधिकारी तथा कर्मचारी होते हैं। सबसे अधिक इसका असर देवराज पर पड़ता है। कई बार वह किसकी बात माने किसकी नहीं, इसे लेकर द्वंद्व और दुविधाग्रस्त हो जाता है, लेकिन दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने का काम भी वही करता है ताकि युद्ध पर इसका कोई प्रतिकूल असर न पड़े। जब वह अर्जुन वर्मा को यह बताता है कि वास्तव में सन १९६५ के युद्ध में कैप्टन रणविजय सिंह का जवान बेटा बेमौत का मारा गया था, क्योंकि मोर्चे पर लड़ता है जवान और नीति तय होती है हेडक्वार्टर में। जब कि परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेने की आजादी जवान या उसके अफसर को होनी चाहिए थी, तभी विजय होती और सैनिकों को बेमौत मारा भी नहीं जाना पड़ता है। बेटे की आकस्मिक मृयु के बाद ही कैप्टन रणविजय सिंह का स्वभाव रूखा हो जाता है और वे अपनी ही नीति पर अड़े रहना चाहते हैं। लेफ्टिनेंट अर्जुन वर्मा को जब यह पता चलता है तब कैप्टन के प्रति उनके रुख में परिवर्तन आता है।

और जहाँ तक बाहर के युद्ध की बात है, अधिक संकट भारतीय 'विक्रांत' को ही झेलने पड़ते हैं। खासकर पाकिस्तानी 'गाजी' की ओर से जब भारतीय पनडुब्बी को नष्ट करने के लिये माईन बिछा दिए जाते हैं, तब भारतीय 'विक्रांत' को आक्रमण की रणनीति के स्थान पर रक्षा की रणनीति अपनानी पड़ती है। इससे नुकसान यह होता है कि उसे बार-बार अपनी दिशा बदलनी पड़ती है तथा समुद्र में ऊपर या नीचे भी बार-बार होना पड़ता है, जिससे मिसाईल दागने के लिए जो बैट्री शक्ति चाहिए वह क्षीण होने लगती है, पर इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि 'गाजी' की ओर दागे गए सारे मिसाईल 'विक्रांत' के ऊपर या नीचे से निकल जाते हैं और वह सुरक्षित रहती है। 'विक्रांत' के सामने दूसरी बड़ी चुनौती यह होती है कि वह 'गाजी' की ओर से बिछाए गए माईन से भी अपने को सुरक्षित रखे। इसमें भी वह कामायाब होती है। एक बार 'गाजी' पर खुशी की लहर दौड़ जाती है, जब उन्हें यह पता लगता है कि उनकी माईन के रेंज में आ जाने से 'विक्रांत' खत्म हो गई, जब कि वास्तव में ऐसा नहीं होता है, पर इसका सीधा असर 'विक्रांत' पर अवश्य होता है और उस पर एक जलजला-सा आ जाता है, जिसमें कुछ लोग मारे भी जाते हैं। देवराज को बचाने के क्रम में कैप्टन रणविजय सिंह की भी मौत हो जाती है और अब 'विक्रांत' को बचाने और उसे विजय दिलाने की पूरी जिम्मेदारी अर्जुन वर्मा पर आ जाती है। जब 'गाजी', 'विक्रांत' के सीधे आक्रमण के रेंज में आ जाती है तब अर्जुन अपनी जान जोखिम में डालकर मैन्युअली मिसाईल 'गाजी' पर दागता है, क्योंकि तब तक 'विक्रांत' की बैट्री की क्षमता काफी कम हो चुकी होती है। उधर गाजी में जश्न का माहौल रहता है, लेकिन अचानक विक्रांत के सीधे और करीब की मिसाईल मार के सामने वह टिक नहीं पाती है और वह हारकर, जलते हुए डूब जाती है। इस तरह इस समुद्री-युद्ध में 'विक्रांत' की यानी भारतीय नौसेना की अर्थात भारत की विजय होती है। इस विजय के साथ ही फिल्म की कथा भी समाप्त होती है।

इस फिल्म में हमें कई विशेषताएँ मिलती हैं। सबसे पहली और महत्वपूर्ण तो यह है कि यह फिल्म १९७१ के भारत-पाक युद्ध की एक सच्ची घटना पर आधारित है। इस आधार पर इसे एक ऐतिहासिक फिल्म के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह उक्त युद्ध का एक सिनेमाई डाक्युमेंटेशन है। उस पर यह फिल्म सामुद्रिक युद्ध पर आधारित है, जिसका फिल्मांकन सबसे कठिन होता है। यह दो दुश्मन देशों की पनडुब्बियों के बीच युद्ध का एक बेहतरीन मिसाल पेश करती है। अब तक भारतीय तथा हिंदी में जितनी भी अच्छी युद्ध-फिल्में बनी हैं, यह उनकी श्रीणी में आती है और इसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि संभवतः पहली बार एक पूरी फिल्म में समुद्र के भीतर में पनडुब्बियों का युद्ध दिखाया गया है। फिल्म के आरंभिक अंश में अमिताभ बच्चन का नैरेशन फिल्म के उपयुक्त एक माहौल तैयार कर देता है। पर्दे पर उभरते दृश्य और पृष्ठभूमि से सुनाई पड़ती गंभीर आवाज हमें बाँध लेती है।

फिल्म की एक बड़ी और सराहनीय विशेषता यह है कि इसमें पनडुब्बी के भीतर के पूरे संसार से हमारा साक्षात्कार होता है। इतना ही नहीं, बल्कि उसके अनुरूप तकनीकी शब्दावली का ही प्रयोग किया गया है। यह अनुभव होता है कि हम किसी प्रेक्षागृह में नहीं, वरन उसके भीतर हैं। भीतर जितनी भी अनुकूल या प्रतिकूल स्थितियाँ आती हैं, उन्हें मानो हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। शायद ही हिंदी में इससे पूर्व पनडुब्बी के भीतर के संसार को इतने यथार्थपरक और विश्वसनीय रूप में दिखाया गया होगा।

विभन्न पदों पर जो सक्रिय अधिकारी हमें दिखते हैं, उन्हें लेकर किसी प्रकार का संदेह ही नहीं होता है कि वे वास्तविक अधिकारी नहीं, बल्कि अभिनेता हैं। अभिनय की दृष्टि से हर एक का अभिनय जीवंत है, चाहे भूमिका छोटी हो या बड़ी। इसमें कोई शक नहीं है कि सारे ही कलाकारों ने इसमें डूब कर काम किया है, तभी फिल्म अपने परिवेश को अपेक्षित रूप में निर्मित कर पाई है। जिन कलाकारों का अभिनय अपनी भूमिकाओं के अनुरूप सटीक और सजीव है, उनमें चार का नाम अवश्य लिया जा सकता है, के.के. मेनन, राना दग्गुबाती, अतुल कुलकर्णी तथा राहुल सिंह। फिल्म को सजीव और जीवंत बनाने में इन कलाकारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। काफी समय तक यह फिल्म कथा के दो समानांतर बिंदुओं पर एक साथ चलती है, बल्कि अधिकारियों की परस्पर टकराहट ही प्रमुख प्रतीत होती है और उसका मानसिक प्रभाव अन्य अफसरों और कर्मचारियों पर कितना पड़ रहा है, यह साफ अनुभव किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि पहले जो अंदरूनी छोटी और व्यक्तिगत लड़ाई चलती है, वही बाद में चलकर एक बाहरी और दो दुश्मन देशों के बड़ी लड़ाई में बदल जाती है। इस तरह फिल्म का जो ग्राफ भीतर से शुरू होता है वह बाहर जाते-जाते अपने क्लाईमेक्स की तरफ बढ़ने लगता है। इस तरह फिल्म का विकास सम्यक रूप में होता है और फिल्म कहीं भी झूलती नहीं है। यह ग्राफ मेंटेन करना भी इस फिल्म की एक बड़ी खूबी है, जिसका समेकित प्रभाव पूरी फिल्म पर पड़ता है और फिल्म अंत तक पहुँचकर एक प्रभावशाली फिल्म बन जाती है।

फिल्म में कई बार युद्धजनित गंभीर तथा चुनौतीपूर्ण स्थितियाँ निर्मित होती हैं और बड़ी मुश्किल से ऐसी स्थितियों से निपटने की भरपूर कोशिश की जाती है। स्थितियाँ जितनी कठिन और जटिल हाती हैं, उससे निपटने की तैयारी भी उतनी ही जटिल दिखती है। पाकिस्तानी 'गाजी' की तुलना में भारत की 'विक्रांत' में कई बार संकट पैदा हो जाता है, किसी तरह से वह उस संकट से उबर पाती है। जब-जब ऐसी पेचीदा और जटिल स्थितियाँ आती हैं, हर बार यह लगता है कि अब भारतीय 'विक्रांत' नहीं टिक पाएगी, लेकिन कई बार अधिकारी अपनी सूझबूझ से अपनी पनडुब्बी को सुरक्षित निकाल लेते हैं या फिर कई बार भाग्य भी उनका साथ देता है। एक तरह से यह युद्ध साँप-नेवले के बीच एक खूनी युद्ध बन जाता है।

पाकिस्तानी 'गाजी' की सारी रणनीति यह होती है कि भारतीय 'विक्रांत' को माइन का जाल बिछाकर छ्द्म रूप से नष्ट किया जाए। इस दाँव-पेंच के खेल में पूरी फिल्म में रोचकता और रोमांच बना रहता है। आद्योपांत एक उत्तेजना और सनसनी बनी रहती है। यही इस फिल्म की कामयाबी की एक बड़ी वजह है।

फिल्म में दो बार क्राइसिस की स्थिति बन जाती है, जब एक बार दुश्मन का वार लगभग सटीक बैठता है और एक आपातकालीन स्थिति 'विक्रांत' पर बन जाती है। इसमें कुछ भारतीय नौसेना के कर्मचारी और अफसर मारे भी जाते हैं, लेकिन जो बचते हैं, वे इस संकट से खुद को और अपनी पनडुब्बी को भी बचा ले जाने में सफल हो जाते हैं। यही वह संकट का समय होता है, कैप्टन रणविजय सिंह अपनी जान देकर भी अपने सहयोगी देवराज को बचाता है। यही भारतीय नौसेना के जवानों के लिए परीक्षा की सबसे बड़ी घड़ी होती है और वे उस समय अपना हौसला नहीं खोते हैं, बल्कि वे अपनी जिंदगी की बाजी लगाकर अपने मृत कैप्टन को खोने के एवज में प्रतिशोध की भावना से किसी भी बलिदान के लिए तैयार हो जाते हैं। वहाँ इन सैनिकों का मौत से जूझने का जज्बा देखने लायक होता है। इससे भी बड़ी और गंभीर स्थिति तब निर्मित होती है जब उनकी सारी बैट्रियाँ कमजोर हो चुकी होती हैं, इसलिए पाकिस्तान की ओर से समुद्र में बिछाए गए माइन से अपने जलपोत को बचाने के लिए उसे कई बार ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ करते हुए दुश्मन को चकमा दिया जाता है। जब बारी आती है, भारत की ओर से पाकिस्तान पर सीधे हमले की तब और कोई उपाय ही नहीं रह जाता है, सिवाय अपने हाथों से मिसाईल छोड़ दुश्मन को मार कर डुबाने के। वही काम अर्जुन वर्मा करता है और इस तरह अंतिम विजय मिलती है। इन सारी स्थितियों का निर्माण इतने इंटेंस रूप में हुआ है कि दर्शक उनसे पूरी तरह बंध जाता है। फिल्म का हर लमहा और हर फ्रेम दर्श्कों से सीधे जुड़ जाता है। उन्हें अपने साथ संलग्न कर लेता है। जैसे 'विक्रांत' में जीने-मरने की हर कठिन परीक्षा में वह खुद भी शिद्दत से शामिल हो।

कैप्टन के शव का जिस तरह अंतिम संस्कार किया जाता है, वह जितना ही भावनात्मक है, उतना ही मर्मस्पर्शी भी। वह दृश्य इस फिल्म का अविस्मरणीय दृश्य बन जाता है। इस अवसर पर जो शोक संदेश अर्जुन वर्मा देता है वह किसी भी दर्शक के दिल में सीधे उतर जाता है। जब 'विक्रांत' में तैनात सारे ही लोग भावाविह्वल होकर 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोसिता हमारा' और 'जनगन मन अधिनायक जय हे' गाते हैं, तब पूरा दृश्य इतना जज्बाती बन जाता है कि शायद ही कोई ऐसा दर्शक होगा, जिसके मन में उस क्षण देश के प्रति श्रद्धा-भक्ति की एक गहरी और तीव्र भावना पैदा न हो। उस क्षण का रोमांच ही ऐसा होता है दर्शकों में और फिल्म के किरदारों में मानो कोई अंतर ही नहीं रह जाता है। इस तरह यह फिल्म अपने दुश्मन के साथ युद्ध में दर्शकों को भी बड़ी सहजता और विश्वसनीयता के धरातल पर अपने साथ शामिल कर लेती है। इससे अधिक किसी फिल्म की सफलता और हो भी क्या सकती है। यह फिल्म अपने प्रभाव में एक संपूर्ण फिल्म है।

यह फिल्म एक व्यावसायिक फिल्म निश्चत रूप से नहीं है। इसे एक कलात्मक फिल्म की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती है। यह किसी सामाजिक या राजनैतिक समस्या पर भी आधारित नहीं है। यह सौ फीसदी एक युद्ध फिल्म है और युद्ध के संसार में भी यह समुद्र के भीतर लड़ी जाने वाली पनडुब्बियों की लड़ाई है, जो दो दुश्मन देशों के बीच लड़ी जाती है। इसके पीछे वास्तव में भारत तथा पाकिस्तान के बीच, बंगलादेश को लेकर छिड़े युद्ध का एक इतिहास है, एक वास्तविक घटना है, जिसे फिल्म के पर्दे पर पहली बार रूपायित किया गया है, इस तरह इस फिल्म का महत्व काफी बढ़ जाता है, एक ऐतिहासिक युद्ध की दृष्टि से भी और समुद्र के भीतर लड़ी जाने वाली एक हिंदी फिल्म के आधार पर भी। अगर यह फिल्म सामान्य या औसत होती तो इसे उतना महत्व नहीं मिल पाता, लेकिन जिस तरह इस फिल्म का निर्माण हुआ है और इसमें समूचे परिवेश को जिस यथार्थपरक रूप में चित्रित किया गया है और जिस तरह यह फिल्म शुरू से लेकर अंत तक अपने समग्र रूप में गहरे प्रभावित करती है तथा हिंदी सिनेमा की युद्धजनित फिल्मों के इतिहास में एक नया आयाम और अध्याय जोड़ती है, वह इस फिल्म को हिंदी की श्रेष्ठ फिल्मों की परंपरा में प्रतिष्ठित करती है।

ऐसी बात नहीं है कि यह फिल्म पूरी तरह निर्दोष है। अच्छी और प्रभावशाली फिल्मों में भी कुछ एक कमियाँ रह जाती हैं। मसलन इस फिल्म में एक डूबते भारतीय जहाज से अर्जुन वर्मा एक युवती, जो डॉक्टर है तथा एक बच्ची को बचाकर अपनी पनडुब्बी पर ले आता है।

फिल्म की भाषा में उस युवती को फिल्म की नायिका माना जा सकता है, जब कि उसकी भूमिका फिल्म में नगण्य है, सिवाय उसके द्वारा घायलों के उपचार के। इस चरित्र के हटा भी दिया जए तो फिल्म के प्रभाव में कोई कमी नहीं आती है। फिल्म का शीर्षक शायद तेलुगु और तमिल संस्करणों में सिर्फ 'गाजी' है, जो कि इसके हिंदी संस्करण वाले शीर्षक के - 'द एटैक ऑफ गाजी' से बेहतर और सार्थक प्रतीत होता है। इस एक हिंदी फिल्म के लिए अंग्रेजी शीर्षक का कोई तुक-तर्क भी नहीं दिखता है। फिल्म में कैप्टन रणविजय सिंह की मृत्यु को सीधे संघर्ष के समय न दिखाकर फिल्म में, एक बैक-दृश्य के रूप में दिखाया गया है, जिससे उसकी गंभीरता कम हो जाती है। जब देवराज अर्जुन वर्मा को कैप्टन की मृत्यु की बात बताता है कि किस तरह उन्होंने उसे बचाने के लिए खुद का बलिदान दे दिया, तब वह दृश्य दर्शकों के सामने आता है, जिसका औचित्य नहीं जान पड़ता है। चूँकि पूरे युद्ध में एक-सी संघर्षपूर्ण स्थितियाँ बार-बार आती हैं, जिससे पुनरावृत्ति का कुछ दोष एक हद तक आ जाता है, जिसे संपादन की कुशलता से कुछ कम किया जा सकता था। कुछ इसी तरह की छोटी-मोटी कमियाँ दिखलाई पड़ती हैं, जिनको अनदेखा किया जा सकता है, क्योंकि इससे फिल्म के सघन और संपूर्ण प्रभाव में कोई खास अंतर नहीं आता है।

अंत में यह अवश्य कहा जा सकता है कि यह हिंदी की एक महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक, प्रभावशाली तथा संवेदनशील फिल्म है, जिसे हिंदी के हर वर्ग के दर्शकों को अवश्य देखना और सराहना चाहिए ताकि इस तरह की यथार्थवादी तथा घटना आधारित फिल्में बनाने की प्रेरणा फिल्मकारों को मिले और हिंदी सिनेमा का समुचित विस्तार भी हो और उसमें विविधता भी आए। चूँकि यह फिल्म भारत-पाक युद्ध पर आधारित है और जो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता तथा अस्तित्व से संबंध रखता है, इस आधार पर इसे एक राष्ट्रीयता प्रधान फिल्म के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है। हिंदी की जिन फिल्मों में राष्ट्रीय भावना की सफल, सघन और संवेदनशील अभिव्यक्ति मिलती है, उनकी पंक्ति में इस फिल्म को निर्विवाद रूप में शामिल किया जा सकता है।


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